‘कहाँ जाऊं, क्या करूं भाग जाऊं दिल्ली या उज्जैन’ : बृजेश कुमार यादव

‘कहाँ जाऊं, क्या करूं भाग जाऊं दिल्ली या उज्जैन’ : बृजेश कुमार यादव
अलवर में कुछ कट्टर हिन्दू कथित गो रक्षकों ने एक मुस्लिम किसान पहलू खान की बर्बर तरीके से पीट-पीट कर हत्या कर दी| घटना का वीडिओ देखने के बाद कई रात तक मैं सो नहीं पाया| मैं भीतर से इतना व्यथित, सशंकित, भयग्रस्त तथा डर के मारे हिल उठा था कि नींद में भी पहलू खान का हाथ जोड़े, जिन्दगी की सलामती की भीख मांगते, दया – याचना की गुहार लगाते, वह चित्र मेरे जेहन में बार – बार कौंध रहा था, जिससे नींद उचट जा रही थी| मेरे भयभीत होने के कई कारण थे| एक, पहलू खान का मेरे पिता की उम्र का होना और पीटने वाले मेरी उम्र के विवेकहीन, उन्माद में मदमस्त तथा सत्ता संरक्षित थे| दूसरा, मैं बार – बार पहलू खान में अपने गाँव तथा पूर्वांचल के उन मुसलमान किसानों की शक्ल देख रहा था, जो आम हिन्दू किसानों की तरह ही खेतीबाड़ी के साथ पशु पालन और व्यापर दोनों एक साथ कर अपना गुजर – बसर करते हैं| अभी यह ज़ख़्म भरा भी न था कि ईद से ठीक तीन रोज़ पहले दिल्ली से खरीददारी कर घर लौट रहे सोलह वर्षीय जुनैद की कथित गौरक्षकों ने चाकू से गोद – गोद कर हत्या कर दिया तथा उसके दो भाइयों को मार – मारकर अधमरा बनाकर भाग निकले|
कृषि प्रधान देश और मुस्लिम समाज
 जिस तरह से पिछले वर्षों में मुसलमान को चिन्हित कर, उनको गो रक्षा के नाम पर प्रताड़ित किया जा रहा, उससे मुस्लिम किसान तथा पशु व्यापारियों में डर व्याप्त गया है| उनकी प्रताड़ना का कारण मुसलमान होने के अलावा कोई दूसरी वज़ह नज़र नहीं आती ! वर्षों से बाप – दादों के ज़माने से वह किसानी के साथ हिन्दू किसान पशु व्यापारियों के साथ जानवरों की खरीद – फरोख्त करते रहे हैं, बिना किसी भेद भाव का सामना किये| कभी ऐसे हालात नहीं बने| लेकिन पिछले वर्षों में जिस तरह के हालात बने हैं, मुस्लिम समाज खुद को जिस तरह असुरक्षित महसूस कर रहा है, उसके लिए मौजूदा सरकार तथा व्यवस्था जिम्मेदार है| मौजूदा सरकार के नेताओं के बोली-वाणी, व्यवहार से ऐसा लग रहा है कि सत्ता का उन्मादियों को परोक्ष, अपरोक्ष रूप से संरक्षण प्राप्त है| नहीं क्या कारण है कि तथाकथित गौ रक्षकों पर कानूनी कार्रवाई की बजाय हिंसा के शिकार लोगों को दोषी ठहराने का एक भी अवसर सत्तासीन नेता चूक नहीं रहे?
मेरे समझ में नहीं आ रहा कि क्या अब वे (मुसलमान) किसान नहीं रहे? क्या अब वे खेती किसानी के साथ पशुओं का व्यापर छोड़ देंगे? अगर ऐसा होगा तो उनका जीवन यापन कठिन से कठिनतर हो जायेगा| महंगाई और प्रकृति की मार ने वैसे भी किसानों की कमर तोड़ रखी है| ऐसे में उनका इस तरह घर बैठना ठाले का धंधा भी छीन जाना है |
मेरी बेचैनी का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण मेरा ख़ुद का इस क्षेत्र (किसानी के साथ पशु व्यापर– गाय बैल और भैंस का ) से जुड़ा होना है| यही वह कारण है जो बार – बार बेध रहा है, टीस रहा| कहाँ से कहाँ पहुँच गये हम ..! चूंकि मेरा ताल्लुक किसान मजदूर परिवार से है तो घर रहकर खेती किसानी के कार्यों के साथ–साथ पशु व्यापर (गाय, बैल और भैंस) का छोटा सा थोड़ा व्यावहारिक अनुभव है| मौसमी तथा प्रछन्न बेरोजगारी के समय में ग्रामीण किसान – मजदूर, सभी जाति–धर्म के लोग पशु मेलों में जानवरों की खरीद–फरोख्त कर कुछ अर्थोपार्जन का जुगाड़ करते हैं| लेकिन नवउदारवाद और तकनीकी विकास ने इस कार्य व्यापार को चौपट कर दिया| जगह–जगह लगने वाले पशु मेले एक, एक कर बंद होते चले गये, जिससे गाँव में किसान-मजदूरों की न सिर्फ़ माली हालत ख़राब होती चली गयी अपितु बेरोजगारी में भी बड़ी मात्रा में इजाफा हुआ| एक अनुमान के मुताबिक ऐसे रोजगार विहीन दौर में दसवें दशक के अंत में और इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में गाँवों से किसान, मजदूरों का रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ सबसे ज्यादा पलायन हुआ| वैसे भी किसान पशु व्यापारियों पर पुलिस के बेत की मार कम न पड़ी थी कि कथित गो रक्षक दल भी सक्रीय हो गया, प्राण लेने की हद तक |
विगत कुछ वर्षों से मुसलमानों को मीडिया और एक खास पार्टी-विचारधारा से जुड़े नेताओं द्वारा ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे वह हर रोज मांस ही खाते हैं, और वह भी गाय का ! मुसलमान गाय या भैंस का मांस खाता जरुर है लेकिन ऐसा नहीं है कि वह हर रोज़ मांस ही खाता है| भारत एक कृषि प्रधान देश है| सभी धर्म, जाति समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में गुजर-बसर करता है, उसका जीवन कृषि कार्य पर आधारित है| आमतौर पर कृषि-कार्य को सिर्फ खेती-बाड़ी तक ही सीमित करके देखा जाता है| किसान पशुओं का भी सबसे बड़ा पालक और कारोबारी है, इस तरफ बहुत कम ही ध्यान जाता है| कहना न होगा कि कोई भी देश कृषि प्रधान एक धर्म, जाति-समुदाय विशेष के योगदान से नहीं बनता| मुसलमानों की आम जनता से लेकर ‘खास जनता’ तक में स्वावलंबी कारोबारी की छवि रूढ़ हो चुकी है| लेकिन, मुसलामानों की बहुत बड़ी आबादी कृषिप्रधान देश में खेती-बाड़ी के साथ पशुपालन और उसका कारोबार कर अपना जीवन यापन करती है—किसी भी आम हिन्दू कृषक की तरह| यह दुर्भाग्य है कि कभी भी इस क्षेत्र में कार्यरत बहुत बड़ी मुस्लिम आबादी की कोई बात नहीं होती, कभी किसी पत्रकार द्वारा खोज – खबर नहीं ली जाती| ऐसा न किये जाने की वज़ह से षड्यंत्रकारी राजनीति और मीडिया के दुष्प्रचार से मुस्लिम समुदाय की छवि जनसामान्य में गो भक्षक की बनती जा रही है| यही वज़ह है कि जन सामान्य (विशेषकर मध्यवर्ग) के मानस में यह बात घर कर गयी है कि मुस्लिम सिर्फ ‘गो –भक्षक’ हो सकता है, गौ पालक नहीं| जबकि ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में जीवन यापन कर रहे सभी मुसलमान कृषक के जीविकोपार्जन का बड़ा माध्यम खेती–बाड़ी के साथ –साथ गाय, भैंस और बकरी पालन है| पहलू खान एक ऐसा ही किसान था जिसे अलवर में सिर्फ इसलिए कुछ हिन्दू ‘गोरक्षकों’ ने पीट कर मारडाला क्योंकि वह मुसलमान था ! मुसलमान गाय खाता है, इसलिए वह सिर्फ़ गो भक्षक हो सकता है लेकिन गो पालक या किसान नहीं?
दरअसल गाय को लेकर पिछले वर्षों में जो उग्र हिंसा, उपद्रव देखने को मिला है उसकी सबसे बड़ी वज़ह है गाय की भावनात्मक और धार्मिक राजनीति करने वालों का सत्ता पर काबिज़ होना| कथित गो रक्षकों और उपद्रवियों पर सरकार द्वारा कार्रवाई न किया जाना| दादरी के अकलाख के हत्यारों को कानूनी कार्रवाई के बजाय उल्टा अकलाख पर ‘गो मांस’ रखने के जुर्म में केश चलाने की मांग करना, वहशियों का हौसला अफजाई करना ही है| पहलू खान मामले में राजस्थान सरकार के गृहमंत्री का बयान कि ‘गलती दोनों तरफ से हुयी है’ जितना गैर जिम्मेदाराना है, उससे कही ज्यादा वहशियों को संरक्षण और आश्वस्तकारी करने वाला था| हद तो राज्यसभा में हो गयी जब मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि ‘ऐसी कोई घटना हुयी ही नहीं है असल में !’ क्या किसी मुसलमान किसान या पशु व्यापारी को सिर्फ़ इसलिए मार देना चाहिए कि वह मुसलमान है?
पशु तस्कर कानून और किसान
गुजरात सरकार ने हाल ही में गो वध, गाय तस्करी आदि से जुड़े मामलों को लेकर बहुत ही कठोर कानून बनाया है| दरसल गोवध और तस्करी की आड़ में गुजरात सरकार भाजपा के पुराने एजेंडे को ही सेट कर रही है, जिससे गो रक्षा के नाम पर एक समुदाय विशेष को बदनाम कर सके| गुजरात सरकार का हाल ही में बना कानून पूरी तरह से अव्यवहारिक और किसान विरोधी है| दुखद है कि किसान-मजदूर से जुड़े मुद्दों को लेकर वह लोग नियम – कानून बनाते हैं, जिनको खेती-किसानी तथा मजदूरी के कार्यों की कोई व्यावहारिक जानकारी और समझ नहीं होती| यह बात समझने के लिए गुजरात सरकार के पशु तस्करी संबंधी बने नए कानून को जानना होगा| रात में आप अगर जानवर ले जाते पकड़े गये, तो आप कानूनन अपराधी माने जायेंगे, और इसके लिए आपको पांच लाख रूपये जुर्माने से लेकर उम्र कैद तक की सजा का प्रावधान किया गया है| यह फैसला पूरी तरह से किसान विरोधी है| जो भी किसान पशु व्यापर करते हैं, वह जानवरों की ख़रीद तो दिन में करते हैं, लेकिन अपनी और आम जनता की सुविधानुसार जानवरों को पशु मेलों या गंतव्य तक रात को ही ले जाना पसंद करते हैं| रात्रिगमन में उनको सुविधा भी होती है| ज्यादातर बैलों को गंतव्य तक पैदल ही हांक कर ले जाया जाता है, क्योंकि बैल की चलने की गति अच्छी होती है| गाय और भैंस को छोटे – बड़े ट्रक या पीकअप में लाद कर गंतव्य तक पहुँचाया जाता है| गाय और भैंस का शरीर भारी होता है, जिस वज़ह से वह तेज गति से नहीं चल पातीं| गाय और भैंस के बच्चे होने के कारण भी इनको गाड़ी से ले जाया जाता है| रात्रि में पशुओं को हांककर ले जाने का मुख्य कारण जगह – जगह पर भीडभाड़ का न मिलना है| चूंकि जानवर भीड़ को देख कर भड़कते बहुत हैं, इसलिए लोगों को भी तथा व्यापारियों को भी असुविधा होती है| रात का मौसम ठंठा और सड़क ख़ाली मिलती है, जिससे वह गंतव्य तक जल्दी पहुँच जाते हैं| यही कुछ कारण हैं जिनकी वज़ह से जानवरों को लोग पैदल या गाड़ी से रात्रि में ले जाना पसंद करते हैं| लेकिन गुजरात सरकार ने कानून बनाकर इसे अब अवैध घोषित कर दिया है| इसका कहीं कोई विरोध भी नहीं दिख रहा| इसकी वज़ह यह है कि ज्यादातर को पता ही नहीं कि इस फैसले का आम जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा ! दूर से देखने में भले ही यह फैसला ठीक लगे लेकिन यह किसान विरोधी फैसला है, जिसका विरोध होना चाहिए| कहना न होगा कि समुदाय विशेष को टारगेट करने के अलावा इस फैसले का कोई अवचित्य नहीं है| इसलिए यह फैसला विशुद्ध रूप से राजनीतिक है, जिसकी राजनीति भाजपा जन्मकाल से ही करती रही है| नहीं तो क्या कारण है कि गो कशी के लिए मुस्लिम समुदाय को बदनाम किया जाता है, जबकि बीफ के सबसे बड़े कारोबारियों में एक भी मुसलमान का नाम नहीं है| कहना न होगा कि अपने पुराने एजेंडों को संघ अपनी सरकारों के माध्यम से थोपना शुरू कर दिया है| आने वाले दिनों में अगर यह पूरे देश में गुजरात नमूना लागू करने (करवाने) की उग्र मांग दिखे तो हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए| क्या विडम्बना है कि एक तरफ जहाँ हम अन्तरिक्ष, चाँद, मंगलयान तथा तकनीक के मार्फ़त वैज्ञानिक विकास की दुर्गम यात्रा कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ ऐसी घटनाएँ घट रहीं हैं जैसे हम किसी अन्धकार युग में आ गये हैं|
 खेती – किसानी और तकनीक
आर्थिक नवउदारवाद तथा तकनीकी विकास का प्रभाव खेती –किसानी पर बहुत व्यापक पड़ा है| पारंपरिक खेती दिन–प्रतिदिन समाप्ति के कगार पर पहुँच रही है| जहाँ खेत की जुताई बैलों से होती थी अब उसकी जगह ट्रक्टर ने ले ली है| मड़ाई का कार्य भी चंद घंटों में बड़े –बड़े थ्रेसरों से निपट जा रहा रहा| अब ऐसे समय में ‘बाज़ार में रामधन’ के रामधन की भावुकता, लगाव, मोह तथा संवेदना मुर्खता ही कहाएगी| अब सभी क्षेत्रों में नफा –नुक्सान मुख्य हो गया है| किसानों ने भी मजबूर होकर बाछे को या तो छुट्टा सांड छोड़ना उचित समझा या कसाइयों के हवाले करना उचित समाधान समझते हैं| अब गाय से बाछे की आकांक्षा कोई किसान भूलवश भी नहीं करता| हाँ, इधर डेयरी उद्योग ने विकास किया है तो किसानों में दूध की अकांक्षा जरुर बलवती हुई है| इस अकांक्षा ने किसानों को गाय की नस्ल भी बदलने को मजबूर किया| अब देसी गाय की जगह किसान जर्सी नस्ल (वर्ण शंकर नस्ल) को प्राथमिकता प्रदान कर रहा है, जिसके बाछे किसी कार्य के नहीं होते| आजकल गाँव में जर्सी नस्ल के साड़ों की संख्या जिस मात्र में बढ़ रही है, और वह फसलों को जितना नुक्सान पहुंचा रहे हैं, उसको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि बिहार में जिस प्रकार से नील गायों को गोली मारने के आदेश पर सरकार विचार कर रही है, कुछ उसी प्रकार आने वाले भविष्य में साड़ों को भी मारने पर विचार हमारी सरकारों को करना पड़े तो कोई अचंभा की बात न होगी ! क्योंकि, गाय-बैल पालना एक बात है, उसकी राजनीति करना दूसरी| हमारे गो शालाओं की स्थिति किसी से छिपी नहीं है| अगर वह बहुत अच्छी स्थिति में भी हो जाएँ तो भी देश में इतने निकम्मे बैल या सांड हो जायेंगे कि उनको बैठाकर खिलाना किसी सरकार के औकात की बात नहीं| आर्थिक रूप से बैल अब किसानों पर आर्थिक बोझ – भार बनने के अलावा कुछ नहीं| ऐसे में उनका समाधान सरकार को निकलना होगा|
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत का मुसलमान उतना ही बड़ा गो पालक या रक्षक है जितना कोई भी किसान हो सकता है| पशु का महत्त्व—चाहे वह गाय हो, बैल हो या भैंस या अन्य पशु—–एक किसान से ज्यादा कोई दूसरा नहीं जान और समझ सकता| यह पूरे देशवासियों को समझाना होगा| गाय के नाम पर हो रही राजनीति को समझाना होगा| अगर हमारे तथाकथित गौ रक्षक संगठनों तथा सरकार को इतनी ही पशुओं की चिंता है तो उन्हें लोगों को पीटने के बजाय गाय को लेकर विभिन्न योजनाओं की शुरुआत करनी चाहिए| जैसे उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव सरकार ने सफल ‘कामधेनु योजना’ चलायी| उन्होंने गाय पालन के लिए किसानों को ब्याजमुक्त (बहुत कम ब्याज दर पर) क़र्ज़ दिया| डेयरी उद्योग का सुदूर ग्रामीण अंचलों में तक विकास किया| जिससे सभी तरह की जनता को फैयदा मिला| नहीं तो पशु तस्करी और गौ रक्षा के नाम पर जो संवैधानिक तथा गैर-संवैधानिक तरीका मौजूदा केंद्र और राज्य सरकार तथा सरकरेतर संगठनों द्वारा अपनाया जा रहा है वह बिल्कुल स्वीकार्य नहीं होगा| इसके पीछे की राजनीतिक मंशा बहुत स्पष्ट है|
हिंसात्मक चक्की में सिर्फ और सिर्फ आम गरीब जनता, किसान – मजदूर पिस रहा है|  खेती – किसानी अब घाटे का सौदा बनती जा रही है| तकनीकी विकास ने खेती – किसानी को बहुत प्रभावित किया है| ऐसे में कुछ पशुओं की उपयोगिता पर सरकार को पुनः विचार करने की जरुरत है|

अमेरिकी चुनाव : मीडिया और ‘बुद्धिजीवी’ समाज से जुड़े कुछ सवाल : बृजेश यादव 
सवाल न पूछने के दौर में सवाल पूछना एक हिमाकत और दुस्साहसपूर्ण कार्य है। यह कार्य कड़वा और विषैला तब हो जाता है जब कथित बौद्धिक जगत तथा पत्रकारिता के सभी प्रारूपों से जुड़ा हो! अमेरिका राष्ट्रपति चुनाव का परिणाम आ चुका है लेकिन यह परिणाम दुनिया भर के बौध्दिक कयासों और मीडिया के एग्जिट पोल के विपरीत है। आज पूरी दुनिया में हाहाकार के स्वर सुनाई दे रहे हैं, जैसे कुछ अप्रत्याशित घट गया हो! निश्चित रूप से डोनाल्ड ट्रम्प की जीत कुछ लोगों को चौकाने वाली लग सकती है क्योंकि उनका विश्वास मीडिया से निर्मित हुआ था। लोकतंत्र का यह चौथा स्तम्भ पिछले कुछ वर्षों से अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है। अमेरिका के लगभग सारे चैनल और हमारे देश के सभी समाचार माध्यमों ने हम तक जो रपट पहुंचाई है वह आज गलत साबित हुई है। आज चुनाव परिणाम से तो ऐसा लग रहा है जैसे हेलेरी क्लिंटन ने इन समाचार एजेंसियों को अपने पक्ष में बोलने –लिखने के लिए रिश्वत दे रखी हो। हकीकत क्या है मुझे नहीं पता। लेकिन यह सच्चाई है कि इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति पद का चुनाव दो अयोग्य और अकुशल व्यक्तियों के बीच था। अमेरिकी जनता को दो अकुशल - अयोग्य प्रत्याशियों में से अपना नेता चुनना था जो उन्होंने सबसे अयोग्य को चुना। मीडिया द्वारा रचे गये भ्रम की प्रतिक्रियास्वरूप ट्रम्प के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों के रूप में देखा जा सकता है। उस भ्रम का एक परिणाम यह हो सकता है जो अमेरिका में युवाओं की बड़ी आबादी डोनाल्ड ट्रम्प को अपना राष्ट्रपति मानाने से इंकार करते हुए सड़कों पर उतर आई है। चुनाव परिणाम से उनका भ्रम काफूर हो गया और अनिष्ट की भावना से सशंकित अब सड़क पर हैं। हालाँकि सभी चुनाव परिणामों के बाद मीडिया के स्वरूप पर सवाल उठता है और उठाना भी चाहिए। लेकिन, अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव परिणाम और पूरी दुनिया की मीडिया की नियति को लेकर एक स्वस्थ बहस की आवश्यकता है। अमेरिकी मीडिया चुनाव में बहुत खुलकर अपना पक्ष तय करता है और अपने पसंद के उम्मीदवार के पक्ष में माहौल भी बनाता है लेकिन हमारे देश का मीडिया इस चुनाव में ऐसा रुख अपनाये हुए था जैसे क्लिंटन के हाथों खुद को गिरवी रख चुका हो। कुछ अखबारों के मोटे – मोटे शीर्षकों ने तो वोट से पहले ही चुनाव परिणाम की घोषणा भी कर चुके थे। यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि भारतीय मीडिया के पास अमेरिकी चुनाव के लिए कोई प्राथमिक स्रोत नहीं था, फिर भी उसने अमेरिकी मीडिया के सापेक्ष द्वितीयक स्रोत को आधार बनाकर अपने फैसले सुनाने से बाज नहीं आई। जबकि यह सबको पता था कि अमेरिकी मीडिया ट्रम्प का खुलकर विरोध कर रहा है। यहाँ दो सवाल उठाते हैं। एक, क्या मीडिया चुनाव पूर्व जो अनुमान सर्वेक्षण के माध्यम से लोगों के सामने रखता है, क्या वह निरपेक्ष हैं? दूसरा, अगर वह निरपेक्ष नहीं हैं तो हकीकत को जनता, आम वोटर आदि से छुपाकर मीडिया तथा कथित बुद्धिजीवी समाज जनता और आम वोटरों के साथ खिलवाड़ नहीं कर रहा ?

 ट्रम्प के विरोध में जो लोग सड़क पर उतर आये हैं वह सभी निश्चित रूप से क्लिंटन की पार्टी से जुड़े हुए हों, ऐसा भी नहीं है। सभी राजनीतिक भी नहीं होंगे। क्या इन लोगों के साथ मीडिया ने धोखा नहीं किया? फर्जी सर्वेक्षण कराकर? ऐसा कैसे हो सकता है कि जो प्रत्याशी जीतता है उसके जीत की सुगबुगाहट जनता में, वोटरों में न मिले? आख़िरकार वह चुनकर तो जनता द्वारा ही आता है! ट्रम्प जैसे लोगों का विरोध हमारी राजनीतिक और सामाजिक प्रतिबद्धता का तकाजा हो सकता है लेकिन हकीकत से आम जनता को अगवा करना एक प्रकार का अपराध है जिसके लिए मीडिया को तथा बौद्धिक समाज को आत्ममंथन की जरूरत है।